October 2016

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October 28, 2016

दिवाली का वो जेब कतरा

दिवाली की शाम घर जाने के लिए बस से उतरकर जेब में हाथ डालते ही वो चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी 
क्या? कुल लेदेकर नौ रुपये और एक खत, जो उसने अपनी माँ को लिखा था, कि "मेरी नौकरी छूट गई 
है। इस दिवाली पैसे नहीं भेज पाऊँगा।" तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था, पोस्ट 
करने को मन नही नहीं कर रहा था। कुल जमा पूंजी के नौ रुपये जा चुके थे। यूँ तो नौ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपये नौ सौ से कम नहीं होते। ऊपर से दिवाली का दिन माँ को क्या जवाब देगा?


कुछ दिन गुजरें, माँ का खत मिला, पढ़ने से पूर्व सहम गया। जरूर पैसे भेजने का लिखा 
होगा, लेकिन खत पढ़कर हैरान रह गया। माँ ने लिखा था, ‘‘बेटा, तेरा पचास 
रुपए का भेजा हुआ मनिआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!...पैसे भेजने 
में कभी लापरवाही नहीं बरतता।’’


वो इसी उधेड़बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीऑर्डर किसने भेजा होगा?

कुछ दिन बाद एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं, आढ़ी–तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत 
पढ़ पाया। लिखा था, 


‘‘भाई ! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से 
मिलाकर, मैंने तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है।....फिकर न करना।...माँ 
तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?


- "तुम्हारा जेबकतरा!’’