होली का मज़ा तो बनारस मे..

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March 12, 2012

होली का मज़ा तो बनारस मे..

उत्सवों का शहर है बनारस, एक ऐसा शहर जहाँ मृत्यु को भी उत्सव की तरह मनाया जाता है| तभी तो वहाँ के लोग मय्यत को ढोल नगाडो के साथ शमशान तक पहुचने के बाद गोलघर के झुल्लन मिठाई वाले की दुकान से होते हुए घर जाते है| कमाल का है मेरा बनारस जिसे बस मौका मिलना चाहिए त्योहार मानने का फिर होली तो आख़िर होली है|
आज एक बार फिर होली मानने बनारस मे हूँ बनारस की होली मुझे हमेशा से पसंद रही है, यहाँ की होली की सबसे बड़ी खाशियत है की इसे सिर्फ़ हिंदू ही नही मुसलमान भी मानते है, काशी की प्राचीनतम होली बारात जिसे वहाँ के हिंदू मुस्लिम मिलकर निकालते है गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक बेमिशाल
कड़ी है और जो आज भी बरकरार है|


रवायतो की इन लड़ियो मे एक अहम कड़ी है चट्टी-चौराहों पर लगने वाली अड़ी, होली पर तो ये अड़भंगी रूप धारण कर लेती है|
फागुन चढ़ते ही लोग बौरा जाते है दिल के भीतर से उमंग उठती है लोग इतने मतवाले हो जाते है की पूरा फागुन होली मनाते है, यूँ तो होली का मज़ा बिना भांग के नही आता पर बनारस में निचले दर्जे के लोग जीभर के भांग पीते है जिसकी खुमारी किसी नाली या पटरी पर उतरा करती है, जिनकी गाँठ मे दाम नही वो लोग ही दिल खोल के होली मिलते है, आपस मे गाली-गलोच करते ठहाके लगाकर हँसते है| रंग,अबीर, गुलाल अंग प्रत्यंग पहुचाकर ही दम लेते है, आपस मे चीख चिल्लाकर माँ-बहन के साथ रिश्ते जोड़ते है पर अंदाज़ ऐसा होता है की कही से ये अश्लील नही लगता एक अनोखा अपनापन लगता है|
बनारस मे 'चचा' संबोधन को एक विशिष्ठ मुकाम हासिल है ये भतीजो के लिए पिता और मित्र का डबल रोल निभाता है यूँ तो अड़ीया चाय-पान की दुकानो पर लगती है पर आज होली की अड़ी महादेव जी के मंदिर पर जमी थी और होलियाना अंदाज़ मे पल-पल निखर रही थी| गप्पबाज़ो, तथ्यबाज़ो की टोली कही पुराने और नये ज़माने की तुलनात्मक विश्लेषण कर रही थी तो कोई फिल्म और क्रिकेट का नयी पीढ़ी पर पड़ रहे असर की विवेचना कर रहा था और कोई एक दिन पहले आए विधानसभा चुनाओ के परिणाम पर विस्तृत रिपोर्ट पेस कर रहा था| दूसरी ओर भांग, ठंडाइ पीसी जा रही थी ढोलक की थाप पर गवनयी, फगुआ हो रहा था| सब होली के मद मे मस्त थे कि तभी 'चचा' भांग का गोला मारे जय-जय  जय-जय का आशीर्वाद रूपी उदघोश करते हुए पहुचे और चुटीले अंदाज़ मे बोले- 


"आ रा रा रा रा कबीरा सा रा रा रा...
 उप्र मे चल गयी मुलायम की आँधी,
 इसी आँधी मे उड़ गये भइया श्री राहुल गाँधी
 बोला हई रे हई रे हई रे.."


भतीजो ने भी नहले पे दहला ठोका बोले-
"वाह भाई वाह, वाह खिलाड़ी वाह
 अब तो थर्रा उठेगा यू. पी. सकल समाज, 
 ये भी गुंडा वो भी गुंडा सारा गुंडा राज़ बोला  हई रे हई रे हई रे..."


काफ़ी देर तक यही सब चलता रहा तभी किसीने माल(भंग, ठंडई) तैयार होने की सूचना दी चचा तुरंत उद्घाटन करने पहुचे और करीब 3गिलास गटकने के बाद अपने विशिष्ठ शैली मे बोले-
" ईs त मेंटल सोशल थेरेपी हौss| एम्मेs पहीले कुल कचरा थिरे होला ओकरे बाद आनंद अवेला| बाकी आजकल तो सभेss साइड इफेक्ट के मकड जाल मे हौsss||
उनकी ये बात सुनकर भतीजो की फौज मे से किसी वीर ने सवाल दागा-
"अयिसन काहे कहतुआ हो चचा? तोहरे समय होलिया मे कss कुच्छ अऊर होत रहल." 

चचा को तो जैसे अवसर मिल गया अपनी भाड़ास निकालने का (वैसे मोका भी था और दस्तूर भी) कहने लगे- "बेटा 'सिंथेटिक कल्चर' का ज़माना है पहले आर्टिसटिक(artistic) होली खेली जाती थी और अब आर्टिफिशियल हो गयी है|
रंग की जगह कलर हो गये, कचोड़ी-जलेबी, चाय-पान की दुकानो पर लगने वाली अड़ीया अब दारू के ठेको पे लगने लगी| पहले जिसपर रंग गिर जाए उसका नाम पता नोट किया जाता था बाद मे उसे घर बुलाकर नये कपड़े और त्योहरी दी जाती थी, पहले होली के दिन पांक्षाछरी भाषा से नवाज़े न जाने पर लोग दुखी हो जाते थे ये चलन आज भी है पर उसका भाव कड़वा हो गया है|
कहते कहते चचा अतीत मे खो से गये, कभी-कभी हम भतीजो के छेड़ने पर तैश मे आजाते तो कभी भाऊक हो जाते उनकी बातो ने भतीजो की टोली को मस्त कर दिया था टकटकी लगाए चचा को देखते और उनकी रसीली बाते सुन मगन होते रहे और ये सोचते की जो पहले था वो आज भी तो है पर कुछ बदलाव के साथ. 

9 comments:

  1. bohat achaaa or sachii baat h evn i feel gud aabki baari maine vahaan ki holi miss kari pr ab aisa feel hi nai ho rahaa h aapki ye lines sb k face yaad dila diye thnk you sir.

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  2. खूब फरमाया जनाब मेरी जन्नत तो वही है .........

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    1. बहुत बहुत आभार आपका विजय जी वैसे बनारस तो है ऐसा..

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  3. Hi Sir,
    mai isbari banaras ahi nahi paya chhutti bhot km thi par apke is article ko padh ke lga ki vns ki holi ko maine miss nahi kiya..
    thank you sir..

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    1. thanks Rajiv waise meri koshish bhi yhi thi ki ehsas kra saku..

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