April 2017

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April 10, 2017

समय


घर की खिड़की के बहार आज जब मै कुछ बच्चो को खेलते  देखता हु
यह सोचता हु की समय वह मेरा किस तरह निकल गया,
समय वह मेरा, उँगलियों से मानो पतली रेत सा किस तरह  फिसल गया।

समय, जो कभी मेरे पास भरपूर था ,
समय, जिससे बेखबर मै  मौज मस्ती में चूर था ,
समय, जिसके होने का पहले मुझे एहसास ही न था ,
समय, जिसका बीत जाना  ज़्यादा कुछ  ख़ास  न था।
अब उसी समय को पाने के लिए मै  बेचैन हो छटपटाता हु,
उस समय की खोज में कभी परेशान, तो कभी खुद पर ही खीज जाता हु।

उस समय को  जिसे कभी मैंने नाकारा था,
उसकी अधिकता के अभिशाप को मैंने जब एक वरदान माना था।
इस महापाप को तुम नाही करो तोह ही अच्छा  है,
इस समय के मायाजाल में तुम न ही फसो तोह ही अच्छा है।


भगवान् न करे की तुम भी कभी जब खिड़की के बाहर कुछ बच्चो  को खेलते देखो,
तो तुम्हे यह न सोचना पड़े की,
समय वह तुम्हारा जाने कहा निकल गया,
समय वह तुम्हरा उँगलियों से पतली रेत सा न जाने कहा  फिसल गया।  

(लेखक परिचय:  वैभव दुबे, बाल साहित्यकार)