पहले बात कुछ और थी और अब बात कुछ और है.
पहले दिन में दो-चार बार तो यूही मिला करते थे हम,
दो बाते यार से तो युही किया करते थे हम
अब तो मानो होठ हम सी से चुके है,
बाते मनो अब हम घोल चुके है।
पहले बात कुछ और थी और अब बात कुछ और है।
एक साथ हमने जो घंटो का समय काटा था,
उनकी एक मुस्कराहट से हमे जो सुकून आता था,
अब तो न समय का पता रहता है,
न उस मुस्कराहट की आरज़ू
अब तोह याद भी नहीं की कितने दिन हो गए
बिना हुए उनके रूबरू।
पहले बात कुछ और थी, और अब बात कुछ और है।
काश इन यादो को हकीकत में मरोड़ा जा सकता,
काश कुछ टूटे टुकड़ो को फिर से समेटा जा सकता,
काश उन लम्हो की छड़ी फिर लग जाती,
काश एक बार फिर खुशहाली छा जाती,
तोह शायद बात कुछ और हो पाती।
(लेखक परिचय: वैभव दुबे, बाल साहित्यकार)
पहले दिन में दो-चार बार तो यूही मिला करते थे हम,
दो बाते यार से तो युही किया करते थे हम
अब तो मानो होठ हम सी से चुके है,
बाते मनो अब हम घोल चुके है।
पहले बात कुछ और थी और अब बात कुछ और है।
एक साथ हमने जो घंटो का समय काटा था,
उनकी एक मुस्कराहट से हमे जो सुकून आता था,
अब तो न समय का पता रहता है,
न उस मुस्कराहट की आरज़ू
अब तोह याद भी नहीं की कितने दिन हो गए
बिना हुए उनके रूबरू।
पहले बात कुछ और थी, और अब बात कुछ और है।
काश इन यादो को हकीकत में मरोड़ा जा सकता,
काश कुछ टूटे टुकड़ो को फिर से समेटा जा सकता,
काश उन लम्हो की छड़ी फिर लग जाती,
काश एक बार फिर खुशहाली छा जाती,
तोह शायद बात कुछ और हो पाती।
(लेखक परिचय: वैभव दुबे, बाल साहित्यकार)