February 2015

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February 23, 2015

सावधान! जनता अब मूड में है

पिछले कई दशकों से राजनेता ये शिकायत करते आए थे कि स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने से वह कुछ कर नहीं पाते। इसलिए अब जनता ने फैसला कर लिया है की वो इनकी इस शिकायत को दूर करके देखेगी इसलिए पहले यू. पी. में अखिलेश यादव को फिर नरेंद्र मोदी को जनता ने प्रचंड बहुमत दिया। और अब वही जनादेश अरविंद केजरीवाल की नई नवेली पार्टी को (कथाकथित एक और मौका) दिया है। ऐसा बहुमत, जो नाहीं केजरीवाल जी ने और नाहीं उनकी पार्टी ने सोचा था। आप पार्टी के तमाम सर्वे और आंकड़ों से भी आगे की यह जीत हमारे लोकतंत्र में आ रहे वैचारिक परिवर्तनों की ओर भी संकेत है।

अब वोटर ने तय कर लिया है कि वह पूर्ण बहुमत से कम कुछ नहीं देंगे| अब ऐसे में  विपक्ष का क्या होगा, वह कैसे चलेगा, इस सोच का जिम्मा उसका नहीं है, क्योंकि वह विपक्ष के लिए वोट नहीं करेगा। भाजपा दिल्ली चुनाव में अपना पूरा फोकस जिस नई पीढ़ी और युवाओं पर कर रही थी, उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे किसी पार्टी के बंधुआ नहीं हैं।


मै कोई चुनावी विश्लेषक नहीं हूँ लेकिन मैने इस चुनाव के दौरान मोदी जी और केजरीवाल जी दोनों के भाषण सुने मोदी जी  प्रधानमंत्री है उनके ऊपर पुरे देश की जिम्मेदारी है साथ ही साथ विदेश नीति और पडोसी देशो से सम्बन्धो की जिम्मेदारी है और वो ये बात अच्छी तरह समझते है लेकिन वो ये नहीं समझ पाये की दिल्ली पूरा देश नहीं एक राज्य है और राज्य की अपनी मूल समस्याएं होती है|

शायद इसीलिए मोदी जी हर भाषण में अर्थव्यवस्था की बात कर रहे थे, ओबामा की बात कर रहे थे, पडोसी देशो की बात कर रहे थे, केजरीवाल को कोस रहे थे। जबकि वही दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल मुफ्त बिजली पानी, झुग्गी झोपड़ियो और लोकल मुद्दो की बात कर रहे थे, अपनी की गयी गलतिओं की माफ़ी मांग रहे थे एक ऐसी भाषा बोल रहे थे, जो जनता तक सीधी जाती है। पहली बार नरेंद्र मोदी हारे हैं अपने कुशल संवाद में, प्रबंधन में और जनता के मनोविज्ञान को समझने में।

इस बात में दो राय नहीं कि दिल्ली विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 67 सीटें जीतकर ‘आप’ ने एक इतिहास रचा है, जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी बधाई के पात्र है और साथ ही इसलिए भी कि उन्होंने भारत कि परंपरागत राजनीती को बदलने क़ी एक सफल कोशिश क़ी जिसकी वजह से राजनीती से मोह भंग कर चुके युवा फिर से राजनीती में दिलचस्पी लेने लगे |

लेकिन इन सब के बावजूद इस बात का हमेशा ध्यान रखना होगा जितना बड़ा समर्थन उतनी बड़ी जिम्मेदारी| क्युकि वर्ष 2004 में ऐसा ही विश्वास सोनिया गांधी के नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़ रही कांग्रेस पर जताया था जनता ने, तब सबको लगा था कि कांग्रेस के दिन फिर आ गये लेकिन उस विश्वास पर खरा न उतर पाने पर आज कांग्रेस का क्या हाल किया जनता ने ये सबने देखा |

इसलिए केजरीवाल जी को ये हमेशा याद रखना होगा कि उनकी पार्टी को इतना बड़ा जनमत क्यों मिला है..और साथ ही ये भी याद रखना होगा कि अगर वो एक लम्बी पारी खेलने राजनीती में उतरे है और अपनी पार्टी को राष्ट्रिय स्तर पर देखना चाहते है तो अभी तक जितनी मेहनत उन्होंने की है वो 1% मात्र है..

फिलहाल तो मै एक भारतीय नागरिक और दिल्ली का निवासी होने कि हैसियत से दिल्ली वालो को उनके एक स्थायी और जोशीली सरकार चुनने के फैसले को अनेक अनेक धन्यवाद और शुभकामनाये देता हूँ क्युकि इन चुनाओ में जीता – हारा कोई भी हो लेकिन जनता ने एक स्पष्ट सन्देश दिया सभी पार्टियो को कि – सावधान हो जाओ हम मूड में है!

February 19, 2015

एक फांसी की आंखों देखी रिपोर्टिंग

सुनील कुमार छत्तीसगढ़ अख़बार के संपादक जिन्होंने देश में पहली बार 25 अक्टूबर 1978 को रायपुर सेंट्रल जेल में हत्या के आरोपी बैजू की फांसी की आंखों देखी रिपोर्टिंग की थी.. उस रिपोर्टिंग की पूरी दास्तान बिस्तार से गुल्लक के इस पोस्ट में पढ़ेंगे |
सुनील कुमार, फांसी की रोपोर्टींग करने वाले रिपोर्टर
आगे की कहानी सुनील कुमार की जुबानी -
बैजू ऊर्फ़ रामभरोसे की फांसी की तारीख़ तय होने से कोई सप्ताह भर पहले मैंने उससे मिलना-जुलना शुरू कर दिया था. बैजू पर आरोप था कि उसने तांत्रिक क्रियाओं के लिए एक ही परिवार के चार लोगों की हत्या की है.
लेकिन हर मुलाकात में बैजू अपने को बेगुनाह बताता था. उसका दावा था कि उसकी पत्नी ने अपने प्रेमी से मिलकर उसे फंसाया है.

फांसी वाले दिन एक क़िस्म की अंतहीन उत्तेजना से भरा हुआ मैं सुबह 3 बजे के आसपास जेल पहुंचा, जहां मुझे जेल मंत्री की इजाज़त को सौंपने के बाद बैजू की कोठरी में ले जाया गया. वहां तब तक कुछ-कुछ तैयारियां शुरू हो चुकी थीं.

बैजू को नए कपड़े पहनाए जा चुके थे. एक पंडित वहीं बैठकर उसे तुलसी और गंगाजल देने की कोशिश कर रहा था और उसे बार-बार राम का नाम लेने को कहे जा रहा था,"राम का नाम लो बैजू..राम का नाम."
लेकिन बैजू राम का नाम लेने को पूरी तरह खारिज कर रहा था. वो आख़िरी पल तक यही मान रहा था कि वह बेकसूर है और उसे फंसाया गया है.

आख़िरी समय में वह अपने बच्चों से मिलने की मांग कर रहा था-हमारे बच्चों को एक बार दिखला देते सरकार और हम कुछ नहीं मांग रहे हैं. मेरे छोटे-छोटे बच्चे है. उन्हें मैं अपने कंधे पर रखकर गाय चराता था. बहुत छोटे-छोटे बच्चे हैं. मुझे मरना तो है ही, बस एक बार मुझे उनसे मिलवा देते.. बस एक बार!
पंडित ने उसे फिर से हाथ में गंगाजल देकर पीने को कहा लेकिन वह गिड़गिड़ाने वाली मुद्रा में बच्चों से मिलवाने की मांग करता रहा. उसने अंजुली में रखे गए तुलसी के पत्ते को खैनी की तरह मलना शुरू किया था.
जेलर एक काग़ज़ निकालकर उसकी फांसी का फ़रमान पढ़ रहे थे.

नहाने से इंकार
जेल अधीक्षक ने दो सिगरेट सुलगाई. एक खुद के लिए और दूसरी उन्होंने बैजू की कंपकपाती उंगलियों में थमा दी.
जेलर ने बैजू से नहाने के लिए कहा, जिससे उसने साफ़ इंकार कर दिया. बहुत मुश्किल से वह नए कपड़े पहनने को राजी हुआ. कपड़े क्या थे, एक कुर्तानुमा बनियान और एक चड्डी.

लेकिन जब हथकड़ी में हाथ डाली जाने लगी तो वह नाराज़ हुआ-इसकी अब क्या ज़रुरत है. हम ऐसे ही चल देंगे! समझाने-बुझाने के बाद उसके हाथों में हथकड़ी लगाई गई और उसकी मुश्कें एक रस्सी से पीछे कर बांध दी गईं. जेल अधीक्षक ने फिर से सिगरेट पीने के लिए पूछा. उसने हथकड़ी लगे हाथों को लेकर झल्लाहट दिखाई तो जेल के एक कर्मचारी ने उसे अपनी उंगलियों से सिगरेट पिलाई.

बाहर पूरी तैयारी हो चुकी थी. सिपाहियों की बूटों की आवाज़, जलाए जा रहे पेट्रोमैक्स और मशाल और इन सबके बीच जब बैजू के सिर पर एक काले रंग का कनटोप डालकर उससे उसका चेहरा ढका गया तो उसने आंखें खुली रखने को कहा. लेकिन सिपाहियों ने कनटोप डालकर उसका नाड़ा गर्दन पर कस दिया.
दो सिपाहियों ने बैजू को बाजुओं से खड़ा किया और उसे जेल की कोठरी से बाहर लेकर आ गए.

हिलती रस्सी
बैजू ने फिर से कनटोप उतारने के लिये कहा तो जेल अधीक्षक के कहने पर कनटोप उतार दिया गया. कोई सौ क़दम चलने के बाद हम सब जेल की चारदीवारी के भीतर ही खुले मैदान में आ गए थे.
सामने एक चबूतरा बना था, जहां चार मशाल और पेट्रोमैक्स की रोशनी में फांसी के दो फंदे साफ़ नज़र आ रहे थे. सिपाहियों का एक पूरा दल चबूतरे के दोनों ओर फैल गया था.

विरोध के बाद भी काले रंग का कनटोप बैजू के चेहरे पर चढ़ाया जा चुका था. उसे चबूतरे पर ले जाया गया तो सबकी सांसें थमी हुई थीं. बैजू के सिर में फंदा डालकर उसे कसा जा रहा था, वहीं उसके पैरों को भी रस्सी से बांधा जा रहा था.
मशाल, टॉर्च और पेट्रोमेक्स की रोशनी के बीच सारी तैयारी को अंतिम रूप दिया जा चुका था.
कुछ ही मिनटों में जेल अधीक्षक ने रुमाल से इशारा किया और चबूतरे के पास खड़े एक व्यक्ति ने चबूतरे से जुड़ा लीवर खींच दिया.

इस पूरे सन्नाटे में एक हल्की-सी आवाज़ आई-‘एह’ और बैजू का शरीर एक झटके के साथ चबूतरे के गड्ढे में झूल गया. मुझे हवा में बस एक रस्सी हिलती दिखाई दे रही थी.
जेल अधिकारियों के साथ हम सब जल्दी से चबूतरे के पीछे पहुंचे, जहां बैजू का शरीर छटपटा रहा था.
कुछ देर के बाद जेल के डॉक्टर ने बैजू की जांच की और बताया कि उसकी धड़कनें अभी भी चल रही हैं.

मौत की पुष्टि
गर्दन की नलिकाओं के टूटने के साथ ही शरीर का दिमाग़ से संपर्क टूट जाता है लेकिन कुछ देर तक शरीर काम करता रहता है. डॉक्टर ने फिर कुछ मिनटों बाद बैजू की जांच की. धड़कनें अभी भी चल रही थीं. तीसरी बार जांच के बाद डॉक्टर ने मौत की पुष्टि की...

बैजू का शरीर फंदे से उतारा जा रहा था तो मैंने देखा, गर्दन से ख़ून की कुछ बूंदें टपकी हुई थीं और उसके सफ़ेद कुर्तानुमा बनियान पर भी ख़ून के कुछ क़तरे थे. फांसी वाली जगह को सफ़ेद चूने से पोता गया था, वहां भी ख़ून बिखरा हुआ था.

मेरे पास रुकने का कोई और कारण नहीं था. मैं जल्दी से जेल से निकलकर अपनी रिपोर्ट पूरी कर लेना चाहता था.
आपको यह बात अमानवीय लग सकती है कि बैजू की फांसी से पहले और उसकी फांसी के बाद भी बैजू की मौत मेरे लिए संवेदना के किसी धरातल पर प्रभावित करने वाली नहीं थी.
इसके बजाय फांसी की आंखों-देखी रिपोर्टिंग के लिये इजाज़त मिलना, बैजू की मौत को देखना और फिर उसे लिखना मेरी पहली और अंतिम प्राथमिकता थी, जिसकी उत्तेजना मुझ पर लगातार हावी थी.
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(BBC Hindi और समाचार पत्रो से साभार)