February 2014

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February 18, 2014

यादों कि गुल्लक में मधुशाला

आज गूगल ने होस्टल के दिन याद दिल दिए जब काशी पुस्तक मेला से मधुशाला खरीद के लाये थे हम|

शुरू के 1-2 दिन तो समय नहीं मिला पढने का लेकिन जब थोडा - थोडा पढ़ना शुरू किये तो मधुशाला अपने नाम के जैसे ही काम करने लगी धीरे धीरे नशे कि तरह चढ़ने लगी |
फिर लगा कि दायरा बढ़ाना चाहिए इसका अकेले पढ़ने में मजा नहीं है साहित्य प्रेमियो की महफ़िल बनायीं जाये और माहोल भी तब असली रंग जमेगा (हालाँकि मिले 1-2 ही) और तब होगी असली श्रद्धांजलि इसके लेखक को|

पहले तो हम सिर्फ 2 लोग ही (रूम मेट) पढ़ते थे, लेकिन दिन - ब - दिन संख्या बढ़ने लगी और अब हमारे ही रूम में महफ़िल सजने लगी, आलम ये हो गया कि अब हमें अपनी ही खरीदी किताब पढ़ने के लिए उसे रूम-रूम में जाके तलाशना पड़ता था कि आज कहा बैठक लगी है मधुशाला की|
उन दिनों फ़िल्मी गीतो से ज्यादा मधुशाला की पंक्तिया जुबान पे चढ़ी रहती थी हमारे, मोबाइल में SMS भी ही किया करते थे मधुशाला की पंक्तिया|

पेट काट के 65रु. खर्च किये थे ये सोच के कि 'ये अमिताभ बच्चन के पिताजी हरिवंश राय जी कि लिखी किताब है, लेकिन पढने के बाद सोच बदल गयी लगा कि अमिताभ जी, हरिवंश राय जी के बेटे है|'

अब वो दिन तो गुजर गए लेकिन मधुशाला की ये पंक्तिया उनकी याद जरुर दिलाती रहती है...


मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।