हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी भारत में भले ही उपेक्षित हो, लेकिन इस जबान का जादू पूरी दुनिया के लगभग हर भाषा के विद्वानों और साहित्यकारों के सिर चढ कर बोलता है।
हिंदी साहित्य के प्रेम में बंधे विदेशी विद्वानों ने इस भाषा की रचनाओं पर अपनी कलम खूब चलाई है।
भारत के नागरिकों से संबंध स्थापित करने के लिए भाषाई और धर्म प्रचार के उद्देश्य ने पहले तो विदेशियों को इस देश के साहित्य का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया और फिर अध्ययन से उपजी आत्मीयता और हिंदी साहित्य की समृद्धि ने उन्हें कलम चलाने को मजबूर किया।
इतालवी विद्वान एलपी टस्सी टरी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तुलसीदास की श्रीराम चरित मानस पर सबसे पहले शोध करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। रूसी विद्वान एपी वारान्निकोव ने वर्ष 1948 में श्रीरामचरित मानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ। वारान्निकोव ने मुंशी प्रेमचन्द की रचना [सौत] का भी यूक्रेनी भाषा में अनुवाद किया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि स्थल पर रामचरित मानस की पंक्ति [भलोभला इहि पैलहइ] अंकित की गई है।
हिंदी साहित्य का इतिहास भी विदेशी साहित्यकारों के लिए शोध का विषय रहा है।
फ्रांस के विद्वान गार्सा दत्तासी ने सबसे पहले हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा था। उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक इस्त्वार वल लिते रत्थूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी [हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास] है। इसका प्रथम संस्करण ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को 15 अप्रैल 1839 को समर्पित किया गया था जिसमें हिंदी और उर्दू के 738 साहित्यकारों की रचनाओं एवं जीवनियों का उल्लेख है।
बेल्जियम के विद्वान फादर कामिल बुल्के यहां आए तो ईसाई धर्म का प्रचार -प्रसार करने के लिए थे, लेकिन हिंदी साहित्य ने उन्हें इस कदर अपना दीवाना बनाया कि वह भारत में ही बस गए और दिल्ली में अंतिम सांस ली। उन्होंने [रामकथा, उत्पत्ति और विकास] पुस्तक को चार भागों और इक्कीस अध्यायों में लिखा।